MEHERANGARH - KILA SURYA KA..
"जोधपुर", "मारवाड़ साम्राज्य" की एक खूबसूरत और विशाल 'राजधानी' थी और आज राजस्थान का हिस्सा है। जोधपुर के 'ब्राह्मणों' ने अपने को अलग दिखने के लिए अपने घरो को नीला रंगवाना शुरू किया था जो आज भी इस शहर की पहचान बने हुए है।
यहाँ कई शताब्दियों पहले 'राठौड़ वंश' के 'सूर्यवंशी राजपूतो' ने राज किया। राठौड़ो को अपना घर "कन्नौज", 'मोहम्मद गोरी' के हमले के बाद छोड़ना पड़ा था। कन्नौज से राठौड़ पहले पश्चिम और कई सालो बाद मारवाड़ की धरती पर पहुंचे और अपना शासन स्थापित किया।
"राव जोधा" ने कई सालो तक शासन करने के बाद अपने लिए एक किले को स्थापित करने का विचार किया। बहुत ढूंढ़ने के बाद बीहड़ रेगिस्तान में एक विशाल लुप्त ज्वालामुखी का पहाड़ मिला जो की 400 फुट ऊँचा था और जिसका नाम "भाकड़ चिड़िया" यानि 'पक्षियों का पहाड़' था और इस पर पानी की कोई कमी नहीं थी। यह पहाड़ मंडोर के दक्षिण से 9 किलोमीटर दूर है।
इस किले के निर्माण हेतु राव जोधा ने एक "चिरिया नाथजी" नाम के सन्यासी को अपना तप रोक पहाड़ी छोड़ने को कहा था। नाथजी ने राव जोधा से आग्रह किया के उन्हें वहीं रहने दिया जाये पर राव जोधा नहीं माने और फिर नाथजी ने क्रोध में आकर राव जोधा को श्राप दिया - "जिस पानी के लिए जोधा तुम एक सन्यासी को विस्थापित करने का अपराध कर रहे हो, एक दिन उसी पानी की कमी तुम्हारे गढ़ में होगी" ऐसा सुनते ही राव जोधा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने नाथजी से माफ़ी मांग एक घर और मंदिर किले में बना कर देने का वादा किया। लेकिन श्राप तो श्राप होता है, आख़िर एक टूटे हृदय और सन्यासी की बात खाली भी तो नहीं जा सकती। फिर भी जोधा जी का पश्चाताप देखकर सन्यासी नाथजी का मन शांत हुआ और श्राप का असर कम करने के लिए उन्होंने जोधा जी को एक उपाए बताया। जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से किले के निचे जिन्दा दफ़न होकर अपने पुरे जीवन का बलिदान देना होगा। परन्तु जब राव जोधा ऐसे किसी व्यक्ति को ढूंढ़ने में असमर्थ हुए तब "मेघवाल समाज" के एक युवक "राजाराम मेघवाल" सामने आये और अपनी बलि देने को तत्पर हुए। एक शुभ दिन देखकर उन्हें जिन्दा दफ़नाया गया और मेहरानगढ़ किले की नीव रखी गई। कितनी विचित्र बात है ना एक किले की स्थापना के लिए एक जिन्दा स्वेच्छा से अपनी बलि देता है परन्तु फिर भी आज तक जोधपुर के इस इलाके में हर 3 से 4 सालो में पानी की कमी होती ही है। राजाराम का बलिदान तो अवर्णनीय था, है और रहेगा इसलिए उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उनकी कब्र के ऊपर 'बलुआ पत्थर' का समारक बनाया गया है, जिसपर उनके बारेमे जानकारी लिखी गई है।
किला बनाने के लिए "खंडवालिया समाज" को आमंत्रित किया गया था जिनके पास 'खंड' ( पत्थर ) की बेमिसाल जानकारी होती थी। खंडवालियो ने पत्थरों में दरारों को खोज निकालने का हुनर सदियों से सिख रखा था, और इसी हुनर के सहारे उन्होंने विशाल पर्वत पर किले का निर्माण किया। एक और समाज जो की "चवालिया" नामक था उन्हें ज़ंजीरों की मदत से भारी से भारी सामान उठाना आता था। लकड़ियों के बने नायाब पुलों के ज़रिये चवालिया ऊपर तक पत्थरों को किले के निर्माण हेतु पहुंचाते थे।
ताज्जुब की बात तो यह है के मेहरानगढ़ किला 'कुतुब-मीनार' से '73 मीटर' ऊँचा है और किले से पाकिस्तान साफ़ नज़र आता है। '500 साल' पुराने किले की '10 किलोमीटर' तक फैली दीवारें जिनकी ऊंचाई '20 से 120 फिट' तक है जो आज भी अपने मूल रूप में मौजूद है। किले की आकृति 'मयूर पंख' के समान है इसलिए किला 'मयूरध्वज' कहलाया था। किले में कई पोल और द्वार है- "लोहपोल, जयपोल, फतहपोल, गोपालपोल, भैरुपोल, अमृतपोल, ध्रुवपोल, सूरजपोल"। इनका क्रम संकड़ा, घुमावदार है ताकि दुश्मन आसानी से किले में प्रवेश न कर सके और गोलियाँ और गर्म तेल दुश्मन पर डालकर किले की रक्षा की जासके। किले में कई अद्भुत 'नक्काशीदार दरवाजे' और 'जालीदार खिड़कियों' से सुसज्जित 'महल' भी है जिनमे "मोतीमहल, स्वर्णमहल, शीशमहल" शामिल है। मोती महल "राजा सुर सिंह" ने बनवाया था जिसमे "पाँच छिपी बालकनियाँ" भी है जिससे राजा की '5 रानियाँ' अदालत की कार्यवाही देखतीं थीं।
किले के अंतिम द्वार लोहपोल पर "जौहर" करने वाली रानियों के हाथों के निशान दिखाई पड़ते हैं। "महाराजा मान सिंह" की "15 रानियों" के हाथों के निशान यहाँ मौजूद है इन सभी रानियों ने महाराज की मौत के बाद "1843" में जौहर किया था।
राव जोधा की "माँ चामुंडा" पर श्रद्धा थी तो उन्होंने किले में माँ का मंदिर बनवाया था। चामुंडा मुख्य रूप से जोधपुर वासियों की 'कुलदेवी' हैं। यह मंदिर आज भी किले पर स्थित है और आम जनता के लिए खुला है।
बाहरी विशालता के साथ-साथ किले के पास खूबसूरत और नाज़ुक दिल भी है जिसमे "राजपुताना कला, आकृति, महल" इत्यादि रचनाएँ है।
राजपूतों को जान देना कुबूल था पर झुकना नहीं, इसलिए जब वह अपने आख़री युद्ध पर जाते तो "केसरिया साफा" बांध लेते और राठौड़ राजा अपने हाथों से अपने योद्धाओं को एक नशीली दवा देते फिर तलवार का राजतिलक कर प्रस्थान करते। राजपुताना साम्राज्य के राजाओं के किले के साथ उनका बाहुबल भी विशाल रहा है। अपना मान- सम्मान हमेशा से ही राजपूतो ने संभाल कर रखा है।
मेहरानगढ़ किला भारत में राठौड़ राजपूतों की शान का परचम आज भी संजोए हुए है। हालांकि मेहरानगढ़ ने कई आतंरिक और बाहरिक युद्धों को झेला है। दुश्मन सेना द्वारा दागे गए गोलों के निशान आज भी किले की दीवारों पर दिखाई पड़ते हैं।
"ऊंचाई, विशालता, सुंदरता, राजनैतिक सुरक्षा" सारे तत्व इस बेमिसाल किले पर मौजूद है। शायद इसलिए सूर्यवंशियों के किले को 'सूर्य का किला' कहा गया है। क्या खूब राज परिवार और उनके सलहाकार रहे होंगे जिन्होंने इस विशाल किले का निर्माण कराया।
हम किले की दीवारों, खिड़कियों को ही देखते हैं क्या कभी इनके पीछे छिपी कहानियों को जानने की कोशिश करते है ? मेहरानगढ़ का इतिहास एक "वंश, बलिदान, राजघराने, और राजपूतो के स्वरुप" को संजोए हुए आज भी अस्तित्व में खड़ा है। जितना विशाल किला उतना ही मानो विशाल आज इसका इतिहास बन गया है।
Sundar itihas
जवाब देंहटाएं🙏
हटाएंDelivered beautifully 🙏🙏
जवाब देंहटाएंMeans a lot 🙏
हटाएंGood story
जवाब देंहटाएंKeep writing always 🙏