ROHA JAGIR !

                 


            "रोहा किला" जिसकी नीव 'सन 1510' के पास रखी गई थी जब 'कच्छ' के "राजा खेंगराजजी १स्ट" के छोटे भाई "साहेबजी" को '52 गाँवो' की जागीर दी गई थी। इस जागीर में राज्य करने वाले परिवार के वंशज "ठाकुर पुष्पेंदर सिंह" जो आज भुज में रहते हैं वह बताते हैं के साहेबजी के पोते "देवाजी" को "माता आशापुरा" ने सपने में दर्शन दिए और कुए से उनकी मूर्ति निकाल स्थापित करने का निर्देश दिया। तब देवाजी ने माता के कहे अनुसार मूर्ति निकाल कर मंदिर निर्माण कराया और उनकी स्थापना की और तभी देवाजी को उसी जगह किला निर्माण कराने का ख्याल आया फिर '1530' में किले का निर्माण शुरू हुआ। ठाकुर पुष्पेंद्र जी बताते हैं के रोहा जागीर में करीब 17 ,18 पीढ़ियों ने अपना जीवन-यापन किया है।  

                  रोहा किले का निर्माण वक़्त और जरुरत अनुसार कराया गया था। पहले बिच का हिस्सा बना फिर उसे संरक्षित करती दिवार को बनवाया गया। बादमे आबादी बढ़ने पर अलग-अलग हिस्सों का निर्माण हुआ और उन्हें सुरक्षा देती हुई दीवारें बनी। हर राजा ने अपने शासन काल के दौरान कुछ न कुछ निर्माण कराया था। इसी कारन रोहा आज '16 एकर' पर फैला हुआ दिखाई पड़ता है। वैसे तो किला भुज के राजमहल की तरह ही बनाया गया था पर एक समय ऐसा भी था जब भुज के राजा रोहा की सफलता देखकर जलते थे। रोहा किला कच्छ की सबसे बड़ी जागीर रह चुका है। 


                इस किले में एक ख़ास मार्ग हुआ करता था जो राजा और रानी के महल को जोड़ता था जिससे जब भी राजा, रानी से मिलने जाते तो किसीको पता नहीं चल पता था। किले में 'नक्काशीदार झरोके' हुआ करते थे जिससे रानियाँ बाहरी दुनिया देख पाती थीं, पर लकड़ी की नक्काशीदार परत के कारन रानियों को कोई नहीं देख पाता था। रोहा जागीर इतनी बड़ी थी के यहाँ के ठाकुर को आरोपियों पर फांसी के अलावा सभी क़ानूनी कार्यवाही करने की इज़ाज़त थी। आरोपियों के लिए इस जागीर में एक 'जेल खाना' भी बनवाया गया था जिसकी टूटी ईमारत आज भी दिखाई पड़ती है। रोहा किले का निर्माण साहेबजी के 7,8 पीढ़ी "नवगंधजी"के शासन काल "1730" में पूरा हुआ था। पर आज ऐसा लगता है जैसे यहाँ खंडहर के सीवा और कुछ अस्तित्व में बसना ही नहीं चाहता हो।  




              रोहा को 'सुमरि रोहा' भी कहा जाता है इसके पीछे छिपी कहानी दिल को मायूस करती है। इतिहास में एक पुरानी घटना का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार 'सिंध' के 'उमरकोट' के "राजा सुमरो" के दो बेटे थे बड़े बेटे का नाम 'चानेसर' और छोटे बेटे का नाम 'गोगा' था। राजा ने छोटे बेटे को राजगद्दी सौप दी थी। इससे बड़े बेटे चानेसर को बहुत दुःख हुआ और उसने नाराज़गी में आकर 'दिल्ली सल्तनत' के "सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी" से हाथ मिलाया और उमरकोट जितने पर '120 सुमरि राजकुमारियों" से निकाह कराने का प्रस्ताव दिया। खिलजी ने भी अपनी सेना उमरकोट राजकुमारियों की लालसा में भेज दी। पर जब उमरकोट पर हमला हुआ तो चानेसर का दिल काँप उठा और उसे अपनी भूल समझ आई। राजा गोगा की युद्ध में मृत्यु होगई तब चानेसर से यह देखा नहीं गया और वो खिलजी की सेना के विरुद्ध युद्ध करने लगा पर दुर्भाग्यवश उसकी भी मृत्यु युद्ध में ही होगई। जब चानेसर को भूल का अहसास हुआ था तभी उसने सारी सुमरि राजकुमारियों को खिलजी की सेना से बचने के लिए तुरंत ही सिंध छोड़ आजके गुजरात में मौजूद 'अब्दासा' जाने को कहा था। राजकुमारियाँ सिंध छोड़ जब कच्छ के रस्ते आगे बढ़ने लगी तब रोहा के निचले इलाके में थक्कर बैठ गईं पर दूर से आरही कई बैलगाड़ियों को देखकर कुछ राजकुमारियाँ डर गई और खिलजी की सेना आरही है ऐसा सोच वहीं रोहा में अपने प्राण त्याग बैठी। अफ़सोस, वो सारी बैलगाड़ियाँ राजकुमारियों की मदत हेतु आरही थीं। जिन राजकुमारियों का देहांत हुआ उनकी कब्र का निर्माण रोहा में ही कराया गया। इस घटना के करीब '100 साल' बाद रोहा 'कच्छ' की सबसे "बड़ी जागीर" बना, शायद यह राजकुमारियों की पवित्रता के कारन संभव हुआ था। 


                यहाँ के वंशज एक घटना को बताते हैं के '11 वी' पीढ़ी के "ठाकुर विजय सिंह" की आकस्मित मौत होगई थी। ठाकुर साहब के चौखट पर एक "फ़क़ीर बाबा" रोज रोटी लेने आते थे। जब ठाकुर जी के देहांत वाले दिन फ़क़ीर बाबा को रोटी नहीं मिली तब उन्होंने पूछा के आज रोटी क्यों नहीं दी जा रही है तब सैनिको ने बताया के राजा साहब की मृत्यु होचुकी है इसलिए शोक हुआ है तब बाबा ठाकुरजी के पार्थिव शरीर के पास गए और उनपर पानी का छीटा डाला फिर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए। ऐसा करने से पहले फ़क़ीर बाबा ने शर्त रखी थी के जब उनकी मृत्य होगी तब उनकी कब्र पहाड़ी के ऊपर बनवाई जाएगी। जब बाबा की मृत्यु हुई तब सैनिको ने बिना राजा को बताये बाबा की कब्र पहाड़ी के निचे बनाई थी। जनाज़ा निचे की ओर लेजाते वक्त फ़क़ीर बाबा जनाज़े से उठ बैठे और बोले- "कहाँ लेकर जा रहे हो ? बस अब सब ख़त्म" ऐसा कहकर फ़क़ीर बाबा दुबारा अपने जनाज़े पर लेट गए। उन फ़क़ीर बाबा की दरगाह आज भी रोहा के निचले हिस्से वाले गाँव में मौजूद है। लोग मानते है के फ़क़ीर बाबा के श्राप के कारन ही रोहा के ठाकुर जी को कोई संतान नहीं हुई। आखिर में "वीरानी गाँव" से राजा के छोटे भाई के पोते "विरसल सिंह जी" को रोहा का ठाकुर बनाया गया था। 

                   कुछ समय बाद रोहा में बसने वाले लोग निचे की ओर रोहा छोड़ जाने लगे। अंत में आर्थिक कारणों के कारन राजा साहब भी रोहा महल को छोड़ भुज में जाकर बस गए। अकेला हुआ रोहा जैसे फिर खंडहर की चादर ओढ़ने को मजबूर होगया था। 


                   वैसे तो रोहा "1965" में वीरान हुआ था पर "2001" के 'भूकंप' ने इसे पूरी तरह तबाह किया और इसकी आलिशान इमारतों को बहुत नुक्सान पहुंचाया। रोहा किले की खिड़कियों और दरवाजों पर "चाँदी और पित्तल' की परत चढ़ी हुई थी, कई प्रकार की "तोपें और बंदूके" भी अंदर मौजूद थीं। पर वीरान होने पर यहाँ चोरी की वारदातें होने लगी और आज रोहा न चाहते हुए भी अपना मूल अस्तित्व खो बैठा है। 


                 यकीन नहीं होता ना इतनी बड़ी जागीर, इतना पुराना और बहुमूल्य इतिहास कैसे इतिहासी पन्नो में बंद होगया है। रोहा की यह हालत आज खुली आँखों से सच देखते नहीं बनती। इतने खूबसूरत दौर से गुज़रने के बाद आज वीराने के साए में रोहा का किला कैसे खुदको इस तरह बिखरता देखता होगा ?


                 हम सभी खूबसूरत किलों को देखने का उनके बारेमें सुनने का समय शायद आसानी से निकाल लेते हैं पर ना जाने कितने रोहा जैसे विशाल इतिहास वाले किले और जागीर आज 'खंडहर और वीराने' के साए में समां गए हैं। समय और इतिहास जैसे खुद नहीं चाहते हैं रोहा जागीर के बंद पन्नों की दास्ताँ सुनाना और या फिर शायद हम भी इतना वक्त नहीं निकालते इनके बंद इतिहास को जानने का ?

                रोहा आज ज़रूर वीरान होचुका है, अपने अंदर न जाने कितने राज़ों को दफ़न किये हुए है। कहानियाँ तो रोहा जागीर की बहुत है पर इनपर यकीन करना और रोहा की ऐसी हालत देखना शायद हमारे लिए मुमकिन नहीं। मुमकिन है तो बस यह यकीन करना के बद्दुआ किसीकी भी हो, विशाल इतिहास को बंद पन्नो में कैद करने में देर  नहीं लगाती, "रोहा किला" शायद इसी को प्रमाणित करता है।  

  

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